(1)
मन विकसित न हो सका, तन का हुआ विकास ।
बीस साल से ढो रहा, ममता का विश्वास ।
बीस साल से ढो रहा, ममता का विश्वास ।
ममता का विश्वास, सबल अबला है माई ।
नब्बे के.जी. भार, उठा के बाहर लाई ।
रविकर वन्दे मातु , उलाहन देता भगवन ।
तुझसे मातु महान, निरोगी कर तो तन मन ।।
(2)
अस्थि-मज्जा रक्त तक, माता रही लुटाय ।
दो-दो पुत्रों की रही, पल पल बोझ उठाय ।
पल-पल बोझ उठाय, बनाई काबिल बन्दा ।
अब माता मुहताज, लगाएं बेटे चंदा ।
कैसा गंदा दौर, भूलते माँ को बेटे ।
पाए ना दो कौर, लाज चुपचाप समेटे ।।
माँ को नमन !!
ReplyDeleteओह!
ReplyDeleteवाकई प्रेरणादायक
ReplyDeleteरविकर पुंज स्वागतम .माता के दो बिम्ब जुटाए रविकर जी ,कैसी है औलाद बताये रविकर जी
ReplyDeleteअस्थि-मज्जा रक्त तक, माता रही लुटाय ।
दो-दो पुत्रों की रही, पल पल बोझ उठाय ।
पल-पल बोझ उठाय, बनाई काबिल बन्दा ।
अब माता मुहताज, लगाएं बेटे चंदा ।
कैसा गंदा दौर, भूल माता को बेटे ।
पाए ना दो कौर, पड़ी है लाज समेटे ।।
मातृ दिवस का एक रूप यह भी है।
ReplyDeleteरविकर जी आपको हमेशा चुटीली कवितायें कहते पाया है.. मगर आज आपकी कविता के आरम्भ में लगा चित्र विचलित कर गया..!! वंदे मातरम!!
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति !!
ReplyDeletehappy mothers day
ReplyDeletethoughtful poem
देख कर दंग रह गई !
ReplyDeleteमुझे याद है ,थपकी देकर,
ReplyDeleteमाँ अहसास दिलाती थी !
मधुर गुनगुनाहट सुनकर
ही,आँख बंद हो जाती थी !
आज वह लोरी उनके स्वर में, कैसे गायें मेरे गीत !
कहाँ से ढूँढूँ ,उन यादों को,माँ की याद दिलाते गीत !