जलें लकड़ियाँ लोहड़ी, होली बारम्बार ।
जले रसोईं में कहीं, कहीं घटे व्यभिचार ।
कहीं घटे व्यभिचार, शीत-भर जले अलावा ।
भोगे अत्याचार, जिन्दगी विकट छलावा ।
रविकर अंकुर नवल, कबाड़े पौध कबड़िया ।
आखिर जलना अटल, बचा क्यूँ रखे लकड़ियाँ ।।
रविकर अंकुर नवल, कबाड़े पौध कबड़िया ।
ReplyDeleteआखिर जलना अटल, बचा क्यूँ रखे लकड़ियाँ ।।
....वाह...क्या खूब कही!
लकड़ी काटे चीर दे, लक्कड़-हारा रोज ।
ReplyDeleteलकड़ी भी खोजत-फिरत, व्याकुल अंतिम भोज
wah wah wah
जलेबी जैसी हो रही है आज जलेबी ।
ReplyDeleteजलेबी जैसी हो रही है आज जलेबी ।
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जलें लकड़ियाँ लोहड़ी, होली बारम्बार।
जले रसोईं में कहीं, कहीं घटे व्यभिचार ।
आदरणीय रविकर जी
सादर प्रणाम !
लकड़ी के माध्यम से आपने महान संदेश दे दिया है …
जीवन का सत्य बता दिया है …
श्रेष्ठ सृजन के लिए आभार !
हार्दिक शुभकामनाएं !
मंगलकामनाओं सहित…
-राजेन्द्र स्वर्णकार
वाह! मनोज जी के ब्लॉग से आपके ब्लॉग तक आना हुआ। वाकई आपकी शैली अनूठी है, बात भी पहुंच जाती है और रसास्वादन भी हो जाता है।
ReplyDeleteरविकर सत्य दिखात है,है अलबेला पुंज
ReplyDeleteलकड़ी बिन सुनी भई, व्यथित धारा की कुंज