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Sunday, 13 May 2012

बुद्धि का अंकुश हटा दे, मन रहा कबसे मचल -

लेखनी है परेशां, न रच रही कोई गजल |
पेट से है हो गई, चूस स्याही दे उगल ||

शब्द तो स्वर बोध केवल, भाव ही मतलब असल |
लुप्त  हो  जाएगा  अनृत, सत्य  ही शाश्वत अटल ||

है  परिश्रम  मूल में  पर, भाग्य  ही काटे  फसल |
आस्मां का भ्रमण कर ले, फिर के आये भू-पटल  ||

बुद्धि का अंकुश हटा दे, मन  रहा कबसे मचल |
स्रोत्र सूखें सूख जाएँ, हो रहे हर-दिन कतल  ||

करती तरंगें चिड़ीमारी, बैठ अपने हाथ  मल |
हाथ पर हम हाथ रक्खे, कोसते आजकल ||

7 comments:

  1. बहुत बढ़िया है भाई !

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  2. है परिश्रम मूल में पर, भाग्य ही काटे फसल |
    आस्मां का भ्रमण कर ले, फिर के आये भू-पटल ||
    यही यथार्थ है ,जीवन का सत्य है जो उचित नहीं है। गहन भाव रचना के लिये आभार!

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  3. बहुत अच्छी गज़ल...सुंदर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

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  4. आजकल मेरी भी लेखनी कोई ग़ज़ल नहीं रच पाती। क्यों?

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  5. है परिश्रम मूल में पर, भाग्य ही काटे फसल |
    आस्मां का भ्रमण कर ले, फिर के आये भू-पटल ||
    करती तरंगें चिड़ीमारी, बैठ अपने हाथ मल |
    हाथ पर हम हाथ रक्खे, कोसते बस आजकल ||
    बहुत सुन्दर ...काश हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की बजाये कुछ उगलें अलार्म ही बजाएं ---भ्रमर ५

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  6. बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।

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