बो के भ्रष्टाचार जो, ले कालाधन काट |
वो ही खाए आम कुल, बेंच गुठलियाँ हाट |
बेंच गुठलियाँ हाट, लाट फिर से बन जाता |
जमा हुन्डियां ढेर, पुश्त फिर कई खिलाता |
क्या कर लेगा शेर, इकट्ठा गीदड़ होके |
लेते रस्ता घेर, विदेशी देशी *बोके |
*मूर्ख
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पावरटी घट ही गई , बीस फीसदी शुद्ध |
मँहगाई पर ना घटी, पावरोटियाँ क्रुद्ध | पावरोटियाँ क्रुद्ध, पाँवड़ा पलक बिछाओ | नव अमीर बढ़ जाँय, गीत स्वागत के गाओ | डर्टी पिक्चर देख, लगा सत्ता कापर-टी | रोके पैदावार, घटा देती पावरटी ||
सकते में है जिंदगी, दो सौ रहे कमाय |
कुल छह जन घर में बसे, लाल कार्ड छिन जाय | लाल कार्ड छिन जाय, खाय के मिड डे भोजन - गुजर बसर कर रहे, कमे पर कल ही दो जन | अब केवल हम चार, दाल रोटी नित छकते | तब हम भला गरीब, बोल कैसे हो सकते || |
बहुत खूब
ReplyDeletelatest postअनुभूति : वर्षा ऋतु
latest दिल के टुकड़े
आप का लेखन सामाजिक सामयिक और सटीक भी ।
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