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रागी है यह मन मिरा, तिरा बिना पतवार |
इत-उत भटके सिरफिरा, देता बुद्धि नकार |
देता बुद्धि नकार, स्वार्थी सोलह आने |
करे झूठ स्वीकार, बनाए बड़े बहाने |
विरह-अग्नि दहकाय, लगन प्रियतम से लागी |
सकल देह जलजाय, अजब प्रेमी वैरागी ||
इत-उत भटके सिरफिरा, देता बुद्धि नकार |
देता बुद्धि नकार, स्वार्थी सोलह आने |
करे झूठ स्वीकार, बनाए बड़े बहाने |
विरह-अग्नि दहकाय, लगन प्रियतम से लागी |
सकल देह जलजाय, अजब प्रेमी वैरागी ||
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तेरी मुरली चैन से, रोते हैं इत नैन ।
विरह अग्नि रह रह हरे, *हहर हिया हत चैन ।
*हहर हिया हत चैन, निकसते बैन अटपटे ।
बीते ना यह रैन, जरा सी आहट खटके ।
दे मुरली तू भेज, सेज पर सोये मेरी ।
सकूँ तड़पते देख, याद में रविकर तेरी ॥
*थर्राहट
बहुत सुन्दर हुज़ूर | लाजवाब
ReplyDeleteलाजबाब,आभार आदरणीय.
ReplyDeleteबहुत खूब, सुन्दर
ReplyDeleteसादर !
बहुत खुबसूरत रविकर जी
ReplyDeletelatest postमेरे विचार मेरी अनुभूति: पिंजड़े की पंछी
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ReplyDeleteरागी है यह मन मिरा, तिरा बिना पतवार |
इत-उत भटके सिरफिरा, देता बुद्धि नकार |
देता बुद्धि नकार, स्वार्थी सोलह आने |
करे झूठ स्वीकार, बनाए बड़े बहाने |
विरह-अग्नि दहकाय, लगन प्रियतम से लागी |
बहुत बढ़िया रचना पढ़ वाई है आपने .बहुत खूब .शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .