प्रेम-क्षुदित व्याकुल जगत, मांगे प्यार अपार |
जहाँ कहीं देना पड़े, कर देता है मार ||
कुर्सी के खटमल करें, मोटी-चमड़ी छेद |
मर जाते अफ़सोस पर, पी के खून सफ़ेद ||
कुर्सी के खटमल करें, मोटी-चमड़ी छेद |
मर जाते अफ़सोस पर, पी के खून सफ़ेद ||
लेना-देना क्यूँ करे , सारा सभ्य समाज ||
सम्बन्धों में जब दिखे, अपने तनिक खटास |
बलि का बकरा ढूंढ़ लो, जो कोई हो पास ||
प्यार बढ़े मदहोश हों, बेशक औरत मर्द |
मदद दूसरा क्यों करे, बढ़ जाए जब दर्द ??
मदद दूसरा क्यों करे, बढ़ जाए जब दर्द ??
प्रगति पंख को नोचता, भ्रष्टाचारी बाज |
ReplyDeleteलेना-देना क्यूँ करे , सारा सभ्य समाज ||
यथार्थपरक दोहों के लिए बधाई...
बलि का बकरा ही सहजता से ढुंढ़ लिया जाता है!
ReplyDeleteसम्बन्धों में जब दिखे, अपने तनिक खटास |
ReplyDeleteबलि का बकरा ढूंढ़ लो, जो कोई हो पास ||
ऐसी ही मानसिकता दिखाई दे रही है!
हमरा पहिला आगमन, सुईकारो महाराज,
ReplyDeleteजोड़ लिए हैं ब्लॉग में, आयेंगे कल-आज!
आयेंगे कल-आज, जमेगी खूब हमारी,
दोहे बरसेंगे भैया फिर बारी बारी!
कितना सच लिखा है....
ReplyDeleteवास्तव में जलेबियों से ऐसा रस टपक रहा है जो कभी उबाल लाता है तो कभी दिलोदिमाग को झकझोर कर रख देता है । इन दोहों को पढ़कर कबीर -रहीम की याद आ गई । बधाई है ।
ReplyDeleteप्रगति पंख को नोचता, भ्रष्टाचारी बाज |
ReplyDeleteलेना-देना क्यूँ करे , सारा सभ्य समाज ||
सम्बन्धों में जब दिखे, अपने तनिक खटास |
बलि का बकरा ढूंढ़ लो, जो कोई हो पास ||
bahut hi sundar prastuti Rvikar ji ...badhai sweekaren.