स्वर्ण-शिखा सी सज संवर, लगती जलती आग ।
छद्म रूप मोहित करे, कन्या-नाग सुभाग ।
कन्या-नाग सुभाग, हिस्स रति का रमझोला ।
झूले रमण दिमाग, भूल के बम बम भोला ।
नाग रहा वो जाग, ज़रा सी आई खांसी ।
कामदेव गा भाग, ताक के स्वर्ण शिखा सी ।।
नींद नाग की भंग हो, हिस्स-फिस्स सम शोर।
भंग नशे में शिव दिखे, जगा काम का चोर ।
जगा काम का चोर, समाधी शिव की छोड़े ।
सरक गया पट खोल, बदन दनदना मरोड़े ।
संभोगी आनीत, नीत में कमी राग की ।
आसक्त पड़ा आसिक्त , टूटती नींद नाग की ।।
मांसाहारी मन-मचा, मदन मना महमंत ।
पाऊं-खाऊं छोड़ दूँ, शंका जन्म अनंत ।
शंका जन्म अनंत, फटाफट पट पर पैनी ।
नजर चीरती चंट, सहे न मन बेचैनी ।
चला मारने दन्त, मगर जागा व्यभिचारी ।
फिर जीवन-पर्यंत, चूमता मांसाहारी ।।
प्रेमालापी विदग्धा, चाट जाय सब धात ।
खनिज-मनुज घट-मिट रहे, नष्ट प्रपात प्रभात ।
नष्ट प्रपात प्रभात, शांत मनसा ना होवे ।
असमय रही नहात, दुपहरी पूरी सोवे ।
चंचु चोप चिपकाय, नहीं पिक हुई प्रलापी ।
चूतक ना बौराय, चैत्य-चर प्रेमालापी ।।
...इस बार जलेबियों से काम-रस टपक रहा है !
ReplyDeleteइधर तो आपने वर्णों का सुंदर आंटा गूंधा है. पढकर मन मुदित हुए बिना नहीं रह सकता.
ReplyDeleteजानमारू छंद लिखे हैं। झमाझम वर्षा के आसार हैं।:)
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