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Saturday, 16 June 2012

उहापोह चित्कार, पाप का अंत निकट है-

'आज की टिप्पणियाँ'

अहँकार

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ढर्रा बदलेगी नहीं,  रोज अड़ाये टांग ।
खांई में बच्चे सहित, ममता मार छलांग । 
'ममता' मार छलांग, भूलती मानुष माटी ।
धंसी 'मुलायम' भूमि, भागता मार गुलाटी ।
रविकर का अंदाज, लगेगा झटका कर्रा ।
बर्रा प्राकृति दर्प, बदल ना पाए ढर्रा ।।

रामगढ: सुतनुका देवदासी और देवदीन रुपदक्ष 

रामगढ में लगे सरकारी स्टाल
सीता बेंगर-रामगढ़,  शाळा नाट्य पुरान ।
ललित कलाओं से मिला, नव परिचय एहसान 
 नव परिचय एहसान, गुफा जोगीमारा की ।
प्रेम कथा उत्कीर्ण, चकित होना है बाकी ।
रंगमंच उत्कृष्ट, सुरों हित सकल सुबीता ।
मेघदूत के पृष्ट, प्रगट धरती से सीता ।।

"मौत से सब बेख़बर हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')



मौत से जो सौत सी हम डाह करते |
जिन्दगी की बेवजह परवाह करते |
सत्य शाश्वत एक ही रविकर समझ-
हर घडी हर सांस में क्यूँ  आह भरते ??

आखर-मोती बिखरें - माहिया

ऋता शेखर मधु
मधुर गुंजन
वाणी हो "मधु" सी सरस, बसे हृदय में प्रीत | 
चलने की चाहत रखो, खूब "ऋता" की रीत |
 

उगता सूरज -धुंध में

BHRAMAR KA DARD AUR DARPAN

बड़ा विकट है भ्रमर के, मन का यह आक्रोश |
धुंध छटेगी शीघ्र ही, रहे सुरक्षित कोष |
रहे सुरक्षित कोष, दोष सब बने नकलची |
विज्ञापन का दौर, दिखें चीजें न सच्ची |
उहापोह चित्कार, पाप का अंत निकट है |
कैलासी नटराज, हमारा बड़ा विकट है ||

8 comments:

  1. मौत से जो सौत सी हम डाह करते |
    जिन्दगी की बेवजह परवाह करते |
    सत्य शाश्वत एक ही रविकर समझ-
    हर घडी हर सांस में क्यूँ आह भरते ??
    फिर भी कितने लोग जीतें हैं यहाँ बेनामी खाते सी ज़िन्दगी ,
    रचना शास्त्रीजी की अचरज से भरी ,मौत का गर खौफ हो तो क्यों बने कोई राम लाल
    मूल रचना पर हावी है यह प्रस्तुति .

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  2. सबसे अलग अंदाज है आपका।

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  3. Your comments are awesome...

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  4. बढ़िया |
    आभार महोदय !!

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  5. मौत से जो सौत सी हम डाह करते |
    जिन्दगी की बेवजह परवाह करते |
    सत्य शाश्वत एक ही रविकर समझ-
    हर घडी हर सांस में क्यूँ आह भरते ??
    वाणी हो "मधु" सी सरस, बसे हृदय में प्रीत |
    चलने की चाहत रखो, खूब "ऋता" की रीत |

    सदैव सजग अपने रविकर जी ब्लॉग प्रहरी से .

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  6. पढ़ कलाम का कलमा,ममता हुई निराश
    कलम उठाए कलमी, त्यागपत्र से आस

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  7. रविकर का अंदाज, लगेगा झटका कर्रा ।
    बर्रा प्राकृति दर्प, बदल ना पाए ढर्रा ।।
    मानसिक रूप से कुंठित लगती है यह ममता श्री .

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