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Sunday, 21 October 2012

भ्रमित कहीं न होय, हमारी प्रिय मृग-नैनी -

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'चित्र से काव्य तक' प्रतियोगिता अंक -१९

कुंडलियाँ 

 चश्में चौदह चक्षु चढ़, चटचेतक चमकार ।
रेगिस्तानी रेणुका, मरीचिका व्यवहार ।
मरीचिका व्यवहार, मरुत चढ़ चौदह तल्ले ।
 मृग छल-छल जल देख, पड़े पर छल ही पल्ले ।
मरुद्वेग खा जाय, स्वत: हों अन्तिम रस्में ।
फँस जाए इन्सान,  ढूँढ़ नहिं पाए चश्में  ।।



मरुकांतर में जिन्दगी, लगती बड़ी दुरूह ।
लेकिन जैविक विविधता, पलें अनगिनत जूह ।
पलें अनगिनत जूह, रूह रविकर की काँपे।
पादप-जंतु अनेक, परिस्थिति बढ़िया भाँपे ।
अनुकूलन में दक्ष, मिटा लेते कुल आँतर ।
उच्च-ताप दिन सहे, रात शीतल मरुकांतर ।।


 रेतीले टीले टले, रहे बदलते ठौर।
मरुद्वेग भक्षण करे, यही दुष्ट सिरमौर ।
यही दुष्ट सिरमौर, तिगनिया नाच नचाए ।
बना जीव को कौर, अंश हर एक पचाए ।
ये ही मृग मारीच, जिन्दगी बच के जीले ।
देंगे गर्दन रेत,  दुष्ट बैठे रेती ले ।

मृगनैनी नहिं सोहती, मृग-तृष्णा से क्षुब्ध ।
विषम-परिस्थित सम करें, भागें नहीं प्रबुद्ध ।
भागें नहीं प्रबुद्ध, शुद्ध अन्तर-मन कर ले ।
प्रगति होय अवरुद्ध, क्रुद्धता बुद्धि हर ले ।
रहिये नित चैतन्य, निगाहें रखिये पैनी ।
भ्रमित कहीं न होय, हमारी प्रिय मृग-नैनी ।।
 



 चश्में=ऐनक / झरना 
चटचेतक  = इंद्रजाल 
रेणुका=रेत कण / बालू 
मरुद्वेग=वायु का वेग / एक दैत्य का नाम   
मरुकांतर=रेतीला भू-भाग 
जूह =एक जाति के अनेक जीवों का समूह 
आँतर = अंतर 

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