टुकड़े टुकड़े में शर्म बटी, लज्जा छुपछुप कर ताक रही ।
इन महा-घुटाले-बाजों की, रँगदारों की गुरु धाक रही ।
मेरी कथनी पर शर्म नहीं, अपनी करनी पर शर्म कहाँ-
काले-धन से नित बढ़ा करे, सुरसा जस इनकी नाक रही ।
जब मौत भूख से हो जाती, मर गए पडोसी-घर के सब
मुंह पर आँचल धर करके शव, तब अन्नपूर्णा ताक रही ।
नक्सल मरते या मार रहे, नित प्यार मरे व्यभिचार रहे-
अब कहाँ शर्म इनको आती, मानवता ही बस कांख रही ।
गर्व-राष्ट्र को तब होगा, जब अफजल सा कोई आके-
उस नगरी का ही ध्वंश करे, जो पाक निगाहें झाँक रही ।।
वाह रविकर सर एक से बढ़कर एक पंक्तियाँ लाजवाब
ReplyDeleteटुकड़े टुकड़े में शर्म बटी, लज्जा छुपछुप कर ताक रही ।
इन महा-घुटाले-बाजों की, रँगदारों की गुरु धाक रही ।
ReplyDeleteनक्सल मरते या मार रहे, नित प्यार मरे व्यभिचार रहे-
अब कहाँ शर्म इनको आती, मानवता ही बस कांख रही ।
अद्धभुत अभिव्यक्ति !!
लाजवाब अभिव्यक्ति
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