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Saturday, 13 October 2012

उस नगरी का ही ध्वंश करे, जो पाक निगाहें झाँक रही-

 टुकड़े टुकड़े में शर्म बटी, लज्जा छुपछुप कर ताक रही ।
इन महा-घुटाले-बाजों की, रँगदारों की  गुरु धाक रही ।

मेरी कथनी पर शर्म नहीं, अपनी करनी पर शर्म कहाँ-
काले-धन से नित बढ़ा करे, सुरसा जस इनकी नाक रही ।

जब मौत भूख से हो जाती, मर गए पडोसी-घर के सब
 मुंह पर आँचल धर करके शव, तब अन्नपूर्णा ताक रही ।

नक्सल मरते या मार रहे, नित प्यार मरे व्यभिचार रहे-
अब कहाँ शर्म इनको आती, मानवता ही बस  कांख रही ।

गर्व-राष्ट्र को  तब होगा,  जब अफजल सा कोई आके-
उस नगरी का ही ध्वंश करे,  जो पाक निगाहें झाँक रही ।।

3 comments:

  1. वाह रविकर सर एक से बढ़कर एक पंक्तियाँ लाजवाब

    टुकड़े टुकड़े में शर्म बटी, लज्जा छुपछुप कर ताक रही ।
    इन महा-घुटाले-बाजों की, रँगदारों की गुरु धाक रही ।

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  2. नक्सल मरते या मार रहे, नित प्यार मरे व्यभिचार रहे-
    अब कहाँ शर्म इनको आती, मानवता ही बस कांख रही ।

    अद्धभुत अभिव्यक्ति !!

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  3. लाजवाब अभिव्यक्ति

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