पौधा रोपा परम-प्रेम का, पल-पल पौ पसरे पाताली |
पौ बारह काया की होती, लगी झूमने डाली डाली |
जब पादप की बढ़ी उंचाई, पर्वत ईर्ष्या से कुढ़ जाता -
टांग अड़ाने लगा रोज ही, काली जिभ्या बकती गाली |
लगी चाटने दीमक वह जड़, जिसने थी देखी गहराई -
जड़मति करता दुरमति से जय, पीट रहा आनंदित ताली |
सूख गया जब प्रेम वृक्ष तो, काट रहा जालिम सौदाई -
आज ताकता नंगा पर्वत, बिगड़ चुकी जब हालत-माली |
लगी खिसकने चट्टानें अब , भूमि-क्षरण होता है हरदम -
पर्वत की गरिमा पर धक्का, धिक्कारे जो दीमक पाली ।।
|
Followers
Friday, 28 September 2012
पौधा रोपा परम-प्रेम का, पल-पल पौ पसरे पाताली-
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
लगी खिसकने चट्टानें अब , भूमि स्खलित होती हरदम -
ReplyDeleteपर्वत की गरिमा पर धक्का, धिक्कारे जो दीमक पाली ।।
very nice.
वाह....
ReplyDeleteवाह ,,, बहुत बढ़िया,,,
ReplyDeleteसूख गया जब प्रेम वृक्ष तो, काट रहा जालिम सौदाई -
आज ताकता नंगा पर्वत,बिगड़ चुकी जब हालत-माली,,,
वाह वाह वाह बहुत जबरदस्त लिखा
ReplyDelete
ReplyDeleteगीतात्मकता से संसिक्त है यह वेश रचना का .आनुप्रासिक शब्द सौन्दर्य लुभाता है .गति ताल माधुर्य सबकी अन्विति एक साथ होती है .
bahut badhiya prastuti ....mera blog aapki pratiksha men ..
ReplyDeleteबहुत खूब...
ReplyDeleteक्या खूब लिखतें हैं आप रविकर भाई.
ReplyDeleteभाव,गीत और शब्दों का अनुपम संगीत संजो देते हैं आप.
गजब बरबस निकल जाता है मुख से.