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Friday, 6 July 2012

राहत बंटती जा रही, सब माया का खेल


चाहत पूरी हो रही, चलती दिल्ली मेल |

राहत बंटती जा रही, सब माया का खेल |

सब माया का खेल, ठेल देता जो अन्दर |

 कर वो ढील नकेल, छोड़ता छुट्टा रविकर |

पट-नायक के छूछ, आत्मा होती आहत |

मानसून में पोट, नोट-वोटों की चाहत ||






2 comments:

  1. खूबसूरत रचना |
    क्या सोच है भाई जी ||

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  2. माया महा ठगिनी !
    वाह !

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