रविकर-पुंज
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Friday, 6 July 2012
राहत बंटती जा रही, सब माया का खेल
चाहत पूरी हो रही, चलती दिल्ली मेल |
राहत बंटती जा रही, सब माया का खेल |
सब माया का खेल, ठेल देता जो अन्दर |
कर वो ढील नकेल, छोड़ता छुट्टा रविकर |
पट-नायक के छूछ, आत्मा होती आहत |
मानसून में पोट, नोट-वोटों की चाहत ||
2 comments:
सच्चित-सचिन
6 July 2012 at 05:13
खूबसूरत रचना |
क्या सोच है भाई जी ||
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सुशील कुमार जोशी
6 July 2012 at 09:18
माया महा ठगिनी !
वाह !
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खूबसूरत रचना |
ReplyDeleteक्या सोच है भाई जी ||
माया महा ठगिनी !
ReplyDeleteवाह !