दूध ग्वाले से दुहा कर रोज लाता
गल्तियों पर कसम खाता गिड़गिडाता--
किन्तु बीबी जब डपटती डूब मरिये
हौज में पानी भला किस हेतु भरिये ?
आठ घंटे चाकरी में जा बिताया,
चार घंटे रोज बच्चों को पढाया---
खेल नियमित शाम को संगमें खिलाया,
बागवानी का नया जो शौक आया
एक घंटे पौध में, पानी पटाया,
तुम पटी फिर भी नहीं, तो - की करिए ?
कैंचियों का है ज़माना खुब कतरिये |
प्रभुने किये उपकार हमपर यूँ बड़े,
हैं आज बच्चे पैर पर अपने खड़े --
लक्ष्य भेदा, बन चुके वे लाडले,
मौजूदगी मेरी इधर, घर में खले
पककर कढ़ाई से गिरे, चूल्हे पड़े,
भून करके कह रही कि जल मरिए |
ढल चुकी है शाम, 'रविकर' चल-चलिए |
ढल चुकी है शाम रविकर चल ,चलिए ...बढ़िया प्रस्तुति है .
ReplyDeleteखूब उकेरा बन्धु जीवन की गाथा को सच में यही सब होता है अब पूरा समय यहीं देंगे तो घर वाले उलटे पाँव खदेरेंगे जरुर ....उनको भी समय दीजिये सब अपने पाँव खड़े हुए सुन ख़ुशी हुयी...सुन्दर सन्देश देती रचना ..ह हा ..भ्रमर ५
ReplyDeleteआभार भाई जी -
ReplyDeleteसुधर रहा हूँ-
जाहि बिधि रखे राम -----
बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति
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