(१ ३ )काची काया मन अथिर ,थिर थिर काम करंत , ज्यों - ज्यों नर निधड़क ,फिरे त्यों त्यों काल हसंत
Virendra Kumar Sharma
ram ram bhai
कबिरा को ही मुँह-बिरा, चिढ़ा रहा धर्मांध |
करता आडम्बर निरा, तन मन बेड़ी-बाँध |
तन मन बेड़ी-बाँध, भटकता मन्दिर महजिद |
जिद में है इन्सान, भूलता अम्मा वालिद |
मन पर चाबुक मार, आज रविकर को हांको |
भूल गया है सीख, भूलता है कबिरा को |
कबिरा को ही मुँह-बिरा, चिढ़ा रहा धर्मांध |
करता आडम्बर निरा, तन मन बेड़ी-बाँध |
तन मन बेड़ी-बाँध, भटकता मन्दिर महजिद |
जिद में है इन्सान, भूलता अम्मा वालिद |
मन पर चाबुक मार, आज रविकर को हांको |
भूल गया है सीख, भूलता है कबिरा को |
आपकी यह पोस्ट आज के (२६ अगस्त, २०१३) ब्लॉग बुलेटिन - आया आया फटफटिया बुलेटिन आया पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई
ReplyDelete