(1)
भटके राही लक्ष्य बिन, भट के झूठे युद्ध |
आशिक रूठे रूह से, देखूं ढोंग विशुद्ध |
देखूं ढोंग विशुद्ध, लगा सज्जन उकसाने |
बातें नीति विरुद्ध, बुद्ध पर लगा कहाने |
गा मनमाने गीत, दिखा के लटके-झटके |
मान बैठता जीत, जगत में क्यूँकर भटके ||
(2)
नारी अब अबला नहीं, कहने लगा समाज ।
है घातक हथियार से, नारि सुशोभित आज ।
नारि सुशोभित आज, सुरक्षा करना जाने ।
रविकर पुरुष समाज, नहीं जाए उकसाने ।
लेकिन अब भी नारि, पड़े अबला पर भारी |
इक ढाती है जुल्म, तड़पती दूजी नारी ।|
है घातक हथियार से, नारि सुशोभित आज ।
नारि सुशोभित आज, सुरक्षा करना जाने ।
रविकर पुरुष समाज, नहीं जाए उकसाने ।
लेकिन अब भी नारि, पड़े अबला पर भारी |
इक ढाती है जुल्म, तड़पती दूजी नारी ।|
आपकी दो पंक्तियाँ बहुत कुछ कहती हैं रविकर भाई ...
ReplyDeleteसही में बहुत कुछ ही नहीं जैसे सब कुछ कह देती हैं !
ReplyDeleteनारी ही नारी की है निर्मम महतारी।
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