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Saturday 14 April 2012

अंत उफ़ आसान थोड़ा-


गम भरा *गम-छा निचोड़ा,  *अंगौछा
बीच  में  ही *फींच छोड़ा |   * धोना

दर्द  रिश्ते  से  रिसा  तो,
खूबसूरत   मोड़   मोड़ा  |

चल न पाये दो कदम प्रिय
गिर गए  गम-*गोड़ तोड़ा |  *पैर

नौ दो ग्यारह हो गए-उफ़
किस तरह का जोड़ जोड़ा |


आज भी घूरे खड़ा  वह
राह  का   मगरूर  रोड़ा  |

धूप गम-छा क्या सुखाये-
घास का अब दोस्त घोड़ा |

इश्क की  फुन्सी हुई थी
बन  चुकी  नासूर-फोड़ा |

घूर "रविकर" घूर ले तो     
अंत उफ़ आसान थोड़ा ||
घूर = घूमने के अर्थ में बहुधा प्रयुक्त होता है भोजपुरी मे,

10 comments:

  1. बाह!...क्या बात है!...

    घूर "रविकर" घूर ले तो
    अंत उफ़ आसान थोड़ा!

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  2. कल 16/04/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  3. बहुत सुन्दर वाह!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 16-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-851 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  4. बाह!...क्या बात है!...धन्यवाद!

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  5. क्या बात है..शुद्ध देशी चासनी में लिपटी जलेबियां....आहा....

    -- इसे हिन्दी गज़ल--- हज़ल/ सज़ल भी कह सकते हैं...

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  6. इश्क की फुन्सी हुई थी
    बन चुकी नासूर-फोड़ा |

    waah bahut khoob.....

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  7. बिलकुल अलग अंदाज़ है आपकी लेखनी का

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  8. हाँ सब कुछ लिख डाला
    कुछ नहीं छोड़ता निगोड़ा।

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  9. न्याय मिलने में है माना
    लग रहा है वक़्त थोड़ा.

    मत सजा दीजे किसी को
    मारता है वक़्त कोड़ा.

    चाल सीधी हो गई अब
    कान किसने है मरोड़ा.

    दोस्ती करने चला था
    घास से घोड़ा निगोड़ा.

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