हिमनद भैया मौज में, सोवे चादर तान |
सरिता बहना झेलती, पग पग पर व्यवधान |
काटे कंटक पथ कई, करे पार चट्टान ।
गिरे पड़े आगे बढे, किस्मत से अनजान ।
सुन्दर सरिता सँवरती, रहे सरोवर घूर ।
चौड़ा हो हिमनद पड़ा, सरिता बहना दूर ।
समतल पर मद्धिम हुई, खटका मन में होय ।
दुष्ट बाँध व्यवधान से, दे सम्मान डुबोय ।
दुर्गंधी कलुषित हृदय, नरदे करते भेंट ।
आपस में फुस-फुस करें, करना मटियामेट ।
इंद्र-देवता ने किया, निर्मल मन विस्तार ।
तीक्ष्ण धार-धी से सबल, समझी धी संसार ।
तन-मन निर्मल कर गए, ब्रह्म-पुत्र उदगार।
लेकिन लेकर बह गया, गुमी समंदर धार ।
भूल गई पहचान वो, खोयी सरस स्वभाव।
तड़पन बढती ही गई, नमक नमक हर घाव ।
छूट जनक का घर बही, झेली क्रूर निगाह ।
स्वाहा परहित हो गई, पूर्ण हुई न चाह ।।
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति। मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएँ !
ReplyDeleteहिमनद भैया मौज में, सोवे चादर तान |
ReplyDeleteसरिता बहना झेलती, पग पग पर व्यवधान |
ravikar रविकर भाई आपकी मौलिक रचना में आपकी प्रतिभा पूरी परवान
चढ़ती है बहुत सुन्दर दोहावली। काव्यात्मक टिपण्णी में इतना सौंदर्य। वह
क्या बात है।
बहुत ही भावपूर्ण कुण्डलियाँ हैं.. मन भीग-भीग गया!!
ReplyDelete