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Monday, 13 January 2014

तड़पन बढती ही गई, नमक नमक हर घाव



हिमनद भैया मौज में, सोवे चादर तान | 
सरिता बहना झेलती, पग पग पर व्यवधान |

काटे कंटक पथ कई, करे पार चट्टान ।
गिरे पड़े आगे बढे, किस्मत से अनजान ।

सुन्दर सरिता सँवरती, रहे सरोवर घूर ।
चौड़ा हो हिमनद पड़ा, सरिता बहना दूर ।


समतल पर मद्धिम हुई, खटका मन में होय ।
दुष्ट बाँध व्यवधान से, दे सम्मान डुबोय ।

दुर्गंधी कलुषित हृदय, नरदे करते भेंट ।
आपस में फुस-फुस करें, करना मटियामेट ।


इंद्र-देवता ने किया, निर्मल मन विस्तार ।
तीक्ष्ण धार-धी से सबल, समझी धी संसार । 

तन-मन निर्मल कर गए, ब्रह्म-पुत्र उदगार।
लेकिन लेकर बह गया, गुमी समंदर धार ।


भूल गई पहचान वो, खोयी सरस स्वभाव।
तड़पन बढती ही गई, नमक नमक हर घाव ।

छूट जनक का घर बही, झेली क्रूर निगाह ।
स्वाहा परहित हो गई, पूर्ण हुई न चाह ।।

3 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति। मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएँ !

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  2. हिमनद भैया मौज में, सोवे चादर तान |


    सरिता बहना झेलती, पग पग पर व्यवधान |


    ravikar रविकर भाई आपकी मौलिक रचना में आपकी प्रतिभा पूरी परवान

    चढ़ती है बहुत सुन्दर दोहावली। काव्यात्मक टिपण्णी में इतना सौंदर्य। वह

    क्या बात है।

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  3. बहुत ही भावपूर्ण कुण्डलियाँ हैं.. मन भीग-भीग गया!!

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